कोरबा। दक्षिण पूर्व मध्य रेलवे सहित जोन के लिए सबसे ज्यादा राजस्व देने के बावजूद कोरबा की उपेक्षा का मसला काफी समय से लोगों को परेशान किये हुए है। आश्वासन से ज्यादा किसी प्रकार के काम रेल सुविधा के मामले में नहीं किये जा रहे हैं। ऐसे में हर तरफ से नाराजगी बढ़ रही है। कोरबा जिले में जनता इसके चक्कर में त्रस्त है। चुनाव का सीजन नजदीक आने के साथ इस पर हर कहीं बात हो रही है और अब कहा जा रहा है कि पानी, बिजली, सड़क से अलग रेल सुविधा का मामला विधानसभा चुनाव पर असर डाल सकता है। अगर जनता ने इस पर पूरी गंभीरता दिखाई तो विधानसभा चुनाव में सत्ताधारी और विपक्ष को मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। कारण बताया जा रहा है कि छत्तीसगढ़ की गठन के बाद से खासतौर पर कोरबा जिले में रेल गाडिय़ों की लेटलतीफी से लेकर उन्हें कभी भी बंद कर देने और विभिन्न मार्गों के लिए नई गाडिय़ों की मांग को बेहद हल्के से लेने के आरोप रेलवे पर लगते रहे हैं। इस मामले में सरकार के साथ-साथ निर्वाचित जनप्रतिनिधि भी जनता के निशाने पर हैं। इससे पहले कुछ मौकों पर किये गए विरोध प्रदर्शन के बहुत ज्यादा परिणाम सामने नहीं आ सके हैं। रेल प्रबंधन की ओर से सिर्फ आश्वासन ही मिलता रहा है और अब यह नागरिकों को बर्दाश्त नहीं हो रहा है। विधानसभा चुनाव इस वर्ष के अंत तक होने संभावित हैं। इसलिए माना जा रहा है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की फार्म अधिसूचना जारी होने तक ही बनी रह सकती है। उसके बाद परिस्थितियां अलग होगी। छत्तीसगढ़ में इससे पहले तक कांग्रेस और भाजपा के बीच ही मुकाबले की स्थिति बनती रही है। अलग-अलग कारणों से लोगों के वोट उसे मिलते रहे हैं लेकिन कोरबा जिले की रेलवे से जुड़े मुद्दे पर उपेक्षा का मामला जगजाहिर है और अब इसी बात को लेकर इनके नेता जनता के पास जाने के लिए मंथन कर रहे हैं। जबकि इस मुद्दे पर दोनों को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश आम आदमी पार्टी कर रही है। जिसने जिले में अपनी सक्रियता के दौरान अब तक ऐसा कोई ठोस काम नहीं किया है जिससे लोग उसे भाव दे। इन सबके बीच अलग-अलग माध्यम से रेल सुविधा और उपेक्षा का विषय सुर्खियों पर है। जानकारों का मानना है कि अगर वोट के लिए रूपये से लेकर दूसरी चीजें लेने के बजाय जनता बड़े मुद्दों को ध्यान में रखती है तो विधानसभा चुनाव में लड़ाई काफी रोचक और कठिन हो सकती है। पैसे पर टिका है दारोमदार भले ही निर्वाचन आयोग चुनाव के लिए व्यय सीमा निर्धारित करता है और इसके लिए प्रत्याशियों से पूरे चुनाव के दौरान खर्च के बिल भी मांगता है लेकिन यह बात जगजाहिर है कि हर कहीं सीमा से कई गुना ज्यादा धनराशि खर्च होती है। यह प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों स्तर से प्रदर्शन में शामिल होती है। इन सबकी जानकारी आयोग को नहीं होती होगी, ऐसा संभव नहीं है। राजनीति से जुड़े जानकार बताते हैं कि अगर चुनाव के तौर-तरीकों को समझने के साथ कार्रवाई की जाए तो बहुत सारे लोगों को अपनी फील्ड बदलने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है।