
आगरा, ३१ जुलाई । आप दिव्यांग हैं, हमारे ई-रिक्शा में बैठिए, मुफ्त में गंतव्य तक पहुंचाएंगे। पोस्टर पर लिखे नंबर पर काल करिए, हम आपको लेने आ जाएंगे। लाना और गंतव्य तक पहुंचाने का किराया नहीं लेते। शहर की सड़कों पर दौड़ते ई-रिक्शा में से एक ई-रिक्शा ऐसा भी मिल जाएगा जिस पर इस तरह का पोस्टर लगा है। वर्षों से दिव्यांग बेटे के शारीरिक मानसिक दर्द की अनुभूति कर रहा एक पिता दिव्यांगता के लिए ई-रिक्शा चालक के रूप में सारथी बना है।आवास विकास कालोनी के सेक्टर छह में रहने वाले मानिक चंद के परिवार में एक बेटा और दो बेटियां हैं। मानिकचंद दोनों बेटियों की शादी कर चुके हैं। बेटा बचपन से दिव्यांग है। अब उसकी उम्र करीब 20 वर्ष है। पांच वर्ष की आयु में ही बेटा टीयर्स मंदबुद्धि संस्थान में पढ़ रहा है। बेटा अपना नाम लिख लेता है, आगरा भी लिख लेता है। खुद कपड़े पहन लेता है और खाना खा लेता है। मानिक चंद बताते हैं कि वे पहले कंपनी में ड्राइवर थे। कोरोना काल में नौकरी चली गई। कुछ दिनों तक गाडिय़ों को साफ करने का काम भी किया। पत्नी किरण लोगों के घरों में काम करती हैं। एक साल पहले ई-रिक्शा खरीदा। मानिक चंद कहते हैं कि मैं समझ सकता हूं कि परिवार में किसी दिव्यांग की तकलीफ क्या होती है। आज मैं दूसरों की मदद कर रहा हूं, भगवान मेरे बेटे की मदद करेंगे। वे बताते हैं कि कई बार दिव्यांगों के बैठने की जगह नहीं होती, ऐसे में मैं सवारी उतार देता हूं। उनके पैसे वापस कर देता हूं और माफी भी मांग लेता हूं। अब लोगों के फोन भी आते हैं, मैं सहर्ष उनके स्वजनों को उनके बताए पते पर ले जाता हूं। हर रोज लगभग पांच ऐसे दिव्यांग मिल जाते हैं। मानिक चंद बताते हैं कि काफी बार ऐसा हुआ कि ई-रिक्शा में क्षमता के अनुसार सवारियां पूरी थीं और रास्ते में कोइ दिव्यांग मिल गया। ऐसे में सवारी उतारी, उनका किराया भी वापस किया और माफी भी मांगी। समझदार सवारी इसका बुरा नहीं मानती और दिव्यांग को बैठाने के लिए खुद की उतर जाते हैं। लोगों के फोन भी आते हैं, मैं सहर्ष उनके दिव्यांग स्वजन को बताए पते पर जाकर लाता हूं और गंतव्य तक पहुंचाता हूं। हर रोज पांच से छह दिव्यांग मिल ही जाते हैं।