कोरिया। जिला गौरेला-पेण्ड्रा-मरवाही के ग्राम सिवनी निवासी डॉ. सुशील कुमार तिवारी सहायक प्राध्यापक, शासकीय विवेकानंद स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मनेन्द्रगढ़ को अटल बिहारी वाजपेयी विश्वविद्यालय, बिलासपुर द्वारा हिन्दी विषय में पीएचडी की उपाधि प्रदान की गई है।
उन्होंने अपना शोध प्रबंध शिव नारायण सिंह की बोध कथाओं में जीवन दृष्टि विषय पर शासकीय बिलासा कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बिलासपुर शोध केंद्र से विदुषी निर्देशिका डॉ. हरिणी रानी आगर के निर्देशन में पूर्ण किया है। उनके शोध का मुख्य विषय शिव नारायण सिंह की शिक्षण परंपरा पर केंद्रित है, जो उत्तर प्रदेश के देवरिया स्थित प्रेस्टिज इंटर कॉलेज के संस्थापक प्राचार्य हैं। बिलासपुर के सीएमडी महाविद्यालय से गणित विषय में स्नातकोत्तर श्री सिंह का जन्म छत्तीसगढ़ के बिलासपुर हिर्री माइंस पुलिस थाने के शासकीय आवास में दिसंबर उन्नीस सौ बासठ को हुआ था जिन्हें पूरी दुनिया आज किस्सागो शिव नारायण सिंह के नाम से जानती है। श्री सिंह प्रतिदिन अपने विद्यालय की प्रार्थना सभा में विद्यार्थियों को एक प्रेरणादायी बोधकथा सुनाते हैं जिनका संकलन विद्यार्थियों से…शीर्षक से दस खंडों में प्रकाशित हुआ है, जिनमें एक हजार बोध कथाएं संकलित हैं। उनकी शिक्षण की यह अनूठी पद्धति प्राचीन भारतीय गुरुकुल परंपरा की याद दिलाती है, जहाँ शिक्षा का उद्देश्य न केवल ज्ञान का प्रसार करना था, बल्कि नैतिक मूल्यों और जीवन दर्शन को भी केंद्र में रखा जाता था। प्राचीन परंपरा में शिक्षक-विद्यार्थी संबंध को विशेष महत्व दिया जाता था, और शिक्षा को केवल अकादमिक ज्ञान तक सीमित नहीं रखा जाता था, बल्कि उसे जीवन के सत्य और उद्देश्य को समझाने का माध्यम माना जाता था। श्री सिंह की शिक्षण पद्धति से प्रभावित होकर डॉ. तिवारी ने उनकी बोध कथाओं को अपने शोध का प्रमुख विषय बनाया और उन कथाओं के माध्यम से जीवन और शिक्षा के गहरे संदेशों का विश्लेषण किया। डॉ. तिवारी ने अपने अध्यापन कार्यों के साथ-साथ शोध जैसे महत्वपूर्ण कार्य को संकल्प, अनुशासन और कठिन परिश्रम के साथ सफलतापूर्वक पूर्ण किया है। उन्होंने शिक्षण और अनुसंधान के बीच संतुलन स्थापित करते हुए ज्ञान के विस्तार में उल्लेखनीय कार्य किया है। उनकी समर्पित कार्यशैली और अनुशासित दृष्टिकोण न केवल उनके शैक्षणिक योगदान को समृद्ध बनाते हैं, बल्कि विद्यार्थियों और शोध समुदाय को भी प्रेरित करते हैं। डॉ. तिवारी अपनी इस उपलब्धि का श्रेय अपने माता-पिता के आशीर्वाद, गुरुजनों के मार्गदर्शन तथा परिवार एवं महाविद्यालय और विश्वविद्यालय के अधिकारियों व कर्मचारियों के सहयोग को देते हैं। निश्चित ही उनका यह शोधकार्य प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा के संरक्षण और संवर्धन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा तथा भविष्य के शोधार्थियों के लिए एक उपयोगी संदर्भ सिद्ध होगा।