लखनऊ। कभी वंचित-शोषित समाज पर एकछत्र राज करने वाली बहुजन समाज पार्टी का अस्तित्व ही अब खतरे में दिखाई दे रहा है। लोकसभा के बाद हरियाणा व जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के हालिया नतीजों से साफ है कि ढलती उम्र के साथ ही बसपा प्रमुख मायावती की वंचित समाज पर पकड़ ढीली होती जा रही है। दलित-ब्राह्मण’ सोशल इंजीनियरिंग से लेकर ‘दलित-मुस्लिम’ और दलित-जाट जैसे फॉर्मूलों व प्रयोगों के चुनाव दर चुनाव फेल होने से पार्टी का प्रदर्शन बद से बद्तर होता जा रहा है।
पार्टी को नए सिरे से खड़ा करने के लिए मायावती को अपने जिस युवा भतीजे आकाश आनंद से बड़ी उम्मीद है, वह भी फिलहाल कोई कमाल नहीं कर पा रहे हैं। दलितों के उत्थान के लिए सन् 1984 में कांशीराम द्वारा बनाई गई बहुजन समाज पार्टी वर्ष 2007 में पहली बार ‘दलित-ब्राह्मण’ सोशल इंजीनियरिंग के सहारे 206 सीटें व 30.43 प्रतिशत वोट के साथ बहुमत हासिल कर उत्तर प्रदेश में बड़ी राजनीतिक ताकत बनकर उभरी थी। पार्टी के उत्तर प्रदेश के अलावा पंजाब, मध्य प्रदेश और हरियाणा राज्य से सांसद तक चुने गए। वर्ष 2009 के चुनाव में देशभर में 6.17 प्रतिशत वोट के साथ पार्टी के सर्वाधिक 21 सांसद जीते लेकिन उसके बाद ‘हाथी’ की सेहत बिगड़ती चली गई।