
नईदिल्ली, ३० जुलाई।
दिल्ली में एक कोचिंग सेंटर के बेसमेंट में प्रतियोगी परीक्षाओं के तीन अभ्यर्थियों की मौत ने शहरी व्यवस्थाओं की पोल खोल दी है। पिछले साल के अंत में शहरी विकास के संदर्भ में एक थिंक टैंक की रिपोर्ट में कहा गया था कि शहरों में गुणवत्तापूर्ण जीवन के लिए एक अदृश्य प्रणाली जरूरी होती है, जिसके चार स्तंभ होते हैं।शहरी नियोजन यानी अर्बन प्लानिंग और डिजाइन, शहरों की अपनी क्षमता और संसाधन, पारदर्शिता और जवाबदेही तथा शक्तिशाली कानूनी विधान तथा प्रतिनिधित्व। थिंक टैंक ने इन चारों कसौटियों पर भारत के लगभग सभी पांच हजार स्थानीय निकायों को दयनीय दशा में पाया था। इसीलिए ड्रेनेज के अभाव में हुए जलभराव के कारण जैसा हादसा दिल्ली में हुआ, वैसी ही घटनाएं देश के दूसरे शहरों में भी होती रहती हैं।केंद्र सरकार ने भले ही शहरी विकास को अपनी नौ शीर्ष प्राथमिकताओं में शामिल किया हो, लेकिन राज्यों को अभी इस पर गौर करना बाकी है। सच्चाई यह है कि अधिकतर शहरों की स्थिति ऐसे हालात तक पहुंच चुकी है छोटे मोटे सुधारों से बदलाव संभव नहीं है। शहरी नियोजन के विशेषज्ञ संतोष नारगुड के अनुसार बुनियादी खामी शहरों की शासन प्रणाली का ही है। यह बुरी तरह बंटी हुई है। जिम्मेदारी और फैसलों का एक केंद्र ही नहीं है। यह सही है कि सुधार के लिए बहुत देर हो चुकी है, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि सब कुछ खत्म हो गया है या कोई उम्मीद ही नहीं बची। विकास प्राधिकरण और सिविक एजेंसियां मिलकर काम क्यों नहीं कर सकतीं।
यह कैसे हो सकता है कि शहरी विकास प्राधिकरण केवल प्लानिंग का काम करें और वह भी आधे-अधूरे ढंग से और एन्फोर्समेंट यानी नियम-कायदों को लागू कराने का काम प्राधिकरणों और नगर निगमों के बीच बंटा हुआ हो। हमारे शहरों का हाल तो यह है कि ट्रैफिक का बुनियादी ढांचा नगर निगम तैयार करता है और ट्रैफिक प्रबंधन पुलिस के पास होता है। बसें किसी और एजेंसी की चलती हैं। ज्यादातर जगहों पर इन एजेंसियों के बीच कोई तालमेल नहीं है।
नारगुड के अनुसार, दिल्ली की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के संदर्भ में यह सामने आ रहा है कि अग्निशमन विभाग कोचिंग सेंटर को मिली एनओसी रद कर रहा है। यह गौर करने लायक है कि फायर सेफ्टी जैसी अहम सेवा को कई राज्य अपने पास बनाए हुए हैं, जबकि 1992 में किए गए 74वें संविधान संशोधन अधिनियम के अनुसार इसे शहरी शासन के हवाले कर देना चाहिए था। यह सामान्य सुधार भी अब तक नहीं हो सका है। शहरी नियोजन से जुड़ी एक रिपोर्ट बताती है कि दिल्ली, बेंगलुरु, भोपाल और देहरादून समेत 40 प्रतिशत राज्यों की राजधानियों के पास सक्रिय मास्टर प्लान ही नहीं है।
सक्रिय मास्टर प्लान न होने का मतलब है या तो प्लान बना ही नहीं और बना भी तो वर्षों पहले उसकी अवधि पूरी हो चुकी है। किसी भी राज्य अथवा केंद्रशासित प्रदेश ने अपने शहरों के लिए सार्वजनिक जगहों और सडक़ों के लिए मानक डिजाइन अनिवार्य नहीं किया है। शहरों के पास न तो पैसा है और न जवाबदेही, न अपनी योजनाओं की निगरानी करने की ताकत और न अपने पैरों पर खड़ा होने की इच्छाशक्ति। 90 प्रतिशत शहर योजनाओं पर निगाह रखने के लिए डिजिटल साधनों से लैस ही नहीं हैं, फिर वे जान ही नहीं सकते कि अवैध निर्माण और अतिक्रमण की क्या स्थिति है।