कोरबा। एक समय ऐसा भी था जब हाथ से बने लकड़ी के कृषि यंत्र इस्तेमाल होते थे. इनकी बिक्री के लिए बड़े-बड़े मेलों का आयोजन हुआ करता था। लेकिन अब आधुनिकता की चकाचौंध में परंपरागत कृषि उपकरण गायब होते जा रहे हैं.मगर कोरबा के एक गांव के किसान पुरानी परंपरागत तरीके से खेती कर विरासत को सहेजने का प्रयास कर रहे है।
90 के दशक में खेती करने के लिए परम्परागत उपकरणों का इस्तेमाल होता था। बैल हल लकड़ी से बना कोपर, बेलन, धान काटने के लिए हाशिया, धान की मिसाइ भी बैलों द्वारा होती थी. जिसे दौरी करना कहा जाता था। आधुनिकीकरण की चौकाचौध में ये तमाम परंपरागत कृषि उपकरण कहीं गुम हो गए। मगर गोपालपुर गांव में विरासत की झलक जरूर देखने को मिलती है। मशीनीकरण की क्रांति इस कदर हावी हुई है कि अब फसल खलिहान तक भी नहीं पहुंचते। थ्रेसर मशीन से खेतो में ही धान की मिसाइ कर ली जाती। इससे समय की भी बचत होती और मजदूर भी कम लगते हैं. जिले के अधिकाश किसानों ने आधुनिकीकरण को अपना लिया है. हालात ये है कि आज के बच्चों को पुराने कृषि यंत्रों का नाम भी नहीं पता. मगर गोपालपुर, चैतमा क्षेत्र के किसान पारंपरिक तरीके से खेती कर रहे है ताकि विरासत में मिले कृषि यंत्रों को जीवंत रख सके।
खेती में मशीनी युग भारी पडऩे के कारण इन औजारों को अब लोग शो पीस के रूप में घरों में सजाने लगे हैं। अब बैल पालने में भी किसी की रुचि नहीं है। खेत जोतने के लिए ट्रैक्टर का इस्तेमाल होता है। पूरी कृषि प्रक्रियाअब मशीन पर आधारित है. मगर कुछ किसान आज भी पुरानी परंपरागत उपकरणों के जरिए खेती कर विरासत को जिंदा रखने अपनी योगदान दे रहे है।