नईदिल्ली, ०९ अक्टूबर ।
हरियाणा चुनाव के नतीजों ने राजनीतिक पंडितों ही नहीं, कांग्रेस को भी हतप्रभ कर दिया है और शायद इसलिए पार्टी परिणामों को सहज रूप से स्वीकार करने को तैयार नहीं है। मगर सियासी वास्तविकता यह भी है कि हरियाणा में अति आत्मविश्वास ने कांग्रेस की चुनावी रणनीति ऐसी बिगाड़ दी कि लगभग जीती बाजी मान रही पार्टी को कड़वी हार मिली है।अति आत्मविश्वास के कारण चुनावी खेल बिगडऩे का पार्टी के लिए यह पहला उदाहरण नहीं है बल्कि पिछले एक साल में हरियाणा समेत तीन राज्यों में विजय की दहलीज से पराजय के पाले में गई है। पिछले साल के आखिर में छत्तीसगढ और मध्य प्रदेश के चुनावों में हरियाणा जैसे अति आत्मविश्वास ने ही पार्टी की नैया डुबोई थी।हरियाणा नतीजों से यह भी साबित हो गया है कि चाहे कमलनाथ, अशोक गहलोत हों या भूपेंद्र सिंह हुड्डा पुराने दिग्गजों के चेहरे पर लगातार दांव लगाते रहना कांग्रेस के लिए भारी पड़ रहा है। वैसे कांग्रेस के हरियाणा में हुड्डा युग की छाया से बाहर निकलने के साहस की परख तो भविष्य में उसके कदमों से होगी मगर परिणामों ने सूबे की सत्ता सियासत में भूपेंद्र सिंह हुड्डा के दौर की वापसी का रास्ता लगभग बंद कर दिया है।कुमारी सैलजा और रणदीप सुरजेवाला को नेतृत्व की दौड़ से बाहर करने के लिए भूपेंद्र सिंह हुड्डा द्वारा तैयार की गई यह सियासी रणनीति इस लिहाज से उनके हक में रही कि कांग्रेस नेतृत्व को भी यह भरोसा हो चला कि हरियाणा में सत्ता का ताला खोलने के लिए हुड्डा की चाबी ही चलेगी। इसका नतीजा ही रहा कि पार्टी हाईकमान ने चुनाव को सौ फीसद हुड्डा के हवाले कर दिया और टिकट बंटवारे से लेकर चुनाव प्रचार अभियान के संचालन तक सब कुछ उनके नियंत्रण में इस तरह रहा कि सैलजा जैसी वरिष्ठ नेता लगभग घर बैठ गईं। रणदीप सुरजेवाला कैथल में अपने बेटे के प्रचार अभियान तक ही सीमित रह गए। पार्टी के 89 उम्मीदवारों में से करीब 72 हुड्डा की पसंद थे। कांग्रेस के अति आत्मविश्वास की बानगी इससे भी जाहिर होती है ।
कि हुड्डा पर दांव लगाने का ही नतीजा रहा कि आम आदमी पार्टी के संग चुनावी तालमेल नहीं हो सका जबकि राहुल गांधी आईएनडीआईए गठबंधन की एकजुटता का संदेश देने के लिए इसके पक्ष में थे।बेशक आप अकेले लडक़र कोई कमाल नहीं कर पाई मगर कांटे की टक्कर के मुकाबलों को देखते हुए उसका डेढ़ फीसद वोट हासिल करना कांग्रेस के लिए ही नुकसान का सौदा रहा।चुनाव अभियान के दौरान सैलजा और सुरजेवाला सरीखे नेताओं के असंतोष के सुर्खियां बनने के बाद भी कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को चुनाव में दरक रही जमीन का अंदाजा नहीं हुआ, क्योंकि हुड्डा जीत को पार्टी की झोली में डालने का भरोसा देते रहे।हरियाणा कांग्रेस के इन नेताओं द्वारा वोटों के सामाजिक-जातीय समीकरणों के करवट लेने की आशंकाओं से जुड़ी चेतावनियों को गंभीरता से नहीं लिया गया।इसमें चुनाव रणनीति का संचालन कर रहे संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल और कोषाध्यक्ष अजय माकन जैसे पार्टी के शीर्ष चुनावी रणनीतिकारों की भूमिका भी अहम बताई जाती है जो हुड्डा के पक्ष में नेतृत्व के सामने मजबूत बैटिंग करते रहे।लेकिन मंगलवार को जब चुनाव नतीजे आए तो हुड्डा के इर्द-गिर्द ही संपूर्ण रणनीति बुनने का कांग्रेस का सपना कुछ वैसे ही बिखर गया जैसा छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल के दावों का हुआ था।हुड्डा की तरह ही मध्य प्रदेश में कमलनाथ के हाथों में पिछले साल टिकट बंटवारे से लेकर रणनीति सब कुछ कांग्रेस नेतृत्व ने सौंप दिया था। अपने अति आत्मविश्वास में कमलनाथ ने सपा को सीट देने की बजाय अखिलेश यादव पर तंज कसा और पार्टी की लुटिया डुबो दी। राजस्थान में भी सचिन पायलट जैसे युवा चेहरे को किनारे कर पुराने दिग्गज और सियासी जादूगर कहे जाने वाले अशोक गहलोत पर ही चुनावी दांव लगाने का कांग्रेस को खामियाजा उठाना पड़ा।