
प्रयागराज। रौबदार चेहरा, कड़क आवाज, तन पर धूनी और मन अनुशासित। यह खूबी है अखाड़ों के नागा संन्यासियों की। उनकी अपनी दुनिया है, जो उन्हें अन्य संतों से अलग करती है। सुख-सुविधाओं से इनका वास्ता नहीं। त्याग, तपस्या व धर्म के प्रति समर्पण का भाव नागा संन्यासियों की पहचान है। सनातन धर्म पर जब-जब आंच आयी तब-तब धर्मयोद्धा के रूप में शस्त्र उठाने से पीछे नहीं रहे। कुंभ-महाकुंभ में नागा संन्यासी हर किसी के कौतूहल का केंद्र रहते हैं। 13 में से छह शैव अखाड़ों जूना, निरंजनी, श्री महानिर्वाणी, आवाहन, आनंद व अटल अखाड़ा में नागा संन्यासी दीक्षित किए जाते हैं।
शारीरिक रूप से हृष्ट-पुष्ट व धर्म के प्रति कुछ कर दिखाने की अदम्य इच्छाशक्ति जिनमें होती है, उन्हें ही नागा संन्यास की दीक्षा दी जाती है। कड़ाके की ठंड हो अथवा प्रचंड गर्मी, नागा को हर समय निर्वस्त्र रहना पड़ता है। ये कुंभ व महाकुंभ के समय प्रकट होते हैं।
इसके बाद आमजन के बीच से दूर होकर पहाड़ी क्षेत्रों में प्रवास करके भजन-पूजन में लीन रहते हैं। अधिकतर नागा संन्यासी नर्मदा तट, उत्तराखंड व हिमाचल प्रदेश की पहाड़ियों में प्रवास करते हैं। वहीं, जिन्हें अखाड़ों की व्यवस्था संभालनी होती है, उन्हें वस्त्र धारण करवा दिया जाता है।