
नईदिल्ली, 0२ सितम्बर ।
सुप्रीम कोर्ट ने अल्पसंख्यक स्कूलों को शिक्षा का अधिकार (आरटीई) कानून के दायरे से बाहर रखने संबंधी 2014 के फैसले के औचित्य पर संदेह जताते हुए सोमवार को मामले को निर्णय के लिए एक बड़ी पीठ के पास भेज दिया। जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस मनमोहन की पीठ ने राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) के अध्ययन सहित रिकॉर्ड पर प्रस्तुत सामग्री का हवाला देते हुए निराशा व्यक्त की कि कानून के दायरे से इन स्कूलों को अलग रखने के फैसले ने दुरुपयोग के लिए मैदान तैयार कर दिया।पीठ ने कहा, हम अत्यंत विनम्रता के साथ यह कहना चाहते हैं कि प्रमति एजुकेशनल एंड कल्चरल ट्रस्ट मामले में लिया गया निर्णय अनजाने में प्राथमिक शिक्षा की नींव को खतरे में डाल रहा है। अल्पसंख्यक संस्थानों को आरटीई कानून से छूट देने से समान स्कूली शिक्षा की अवधारणा प्रभावित होती है और अनुच्छेद 21ए में निहित समावेशिता और सार्वभौमिकता का विचार कमजोर होता है।अनुच्छेद 21ए के अनुसार, सरकार छह से चौदह वर्ष की आयु के सभी बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगी। शीर्ष अदालत ने कहा कि आरटीई कानून बच्चों को बुनियादी ढांचा, प्रशिक्षित शिक्षक, किताबें, वर्दी और मध्याह्न भोजन जैसी सुविधाएं सुनिश्चित करता है।
हालांकि, शिक्षा का अधिकार कानून के दायरे से बाहर रखे गए अल्पसंख्यक स्कूल इन सुविधाओं को प्रदान करने के लिए बाध्य नहीं हैं। पीठ ने कहा- कुछ अल्पसंख्यक स्कूल आरटीई कानून के तहत अनिवार्य सुविधाएं प्रदान करते हैं, लेकिन कई अन्य ऐसा नहीं कर पाते, जिससे छात्रों को ये सुविधाएं नहीं मिल पातीं। पीठ ने यह भी कहा कि आरटीई कानून शैक्षणिक प्राधिकारों के माध्यम से समान पाठ्यक्रम मानकों को सुनिश्चित करता है, जो प्रत्येक बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की गारंटी देता है। हालांकि, अल्पसंख्यक संस्थान ऐसे दिशा-निर्देशों के बिना काम करते हैं, जिससे बच्चों और उनके अभिभावकों को यह अनिश्चितता रहती है कि उन्हें क्या और कैसे पढ़ाया जाएगा।शीर्ष अदालत ने चेतावनी दी कि यह स्थिति बच्चों को एकजुट करने के बजाय विभाजित और कमजोर करती है। पीठ ने कहा- यदि लक्ष्य एक समान और एकजुट समाज का निर्माण करना है तो ऐसी छूट हमें विपरीत दिशा में ले जाती है। सांस्कृतिक और धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा के प्रयास के रूप में शुरू की गई इस पहल ने अनजाने में एक नियामकीय खामी पैदा कर दी है, जिसके परिणामस्वरूप शिक्षा का अधिकार कानून द्वारा निर्धारित व्यवस्था को दरकिनार करने के लिए अल्पसंख्यक दर्जा चाहने वाले संस्थानों में वृद्धि हुई है।