
औद्योगिक तीर्थ में मशीनों की गूंज में दबी संवेदनशीलता
कोरबा। भले ही वृद्धाश्रम की तस्वीर पश्चिम की सभ्यता का हिस्सा है लेकिन भारत में इसे स्वीकार नहीं किया जाता है। इसके बावजूद औद्योगिक तीर्थ कहे जाने वाले कोरबा में सर्वमंगला हसदेव क्षेत्र में वृद्धाश्रम चल रहा है। यहां अपनी जिंदगी के बाकी हिस्से को काटने की मजबूरी कई उम्रदराज लोगों की है। ये अच्छे भले परिवारों के आधार स्तंभ रहे हैं लेकिन अपनों की उपेक्षा के चलते अब उन्हें दुर्दिन का सामना करना पड़ रहा है।
प्रशांति वृद्धाश्रम पिछले 20 वर्षों से अपनी छत के नीचे उन बुज़ुर्गों को शरण दे रहा है, जिन्हें उनके अपने लोगों ने या तो छोड़ दिया, या मजबूरी में अलग कर दिया। इस आश्रम में 26 से अधिक बुज़ुर्ग रहते हैं। कुछ पुरुष, कुछ महिलाएं जिनकी आंखों में अब आंसू नहीं, बल्कि एक शांत दु:ख तैरता है। उनके चेहरे गवाही देते हैं कि पीड़ा शब्दों से परे होती है।
करीब दो दशक पहले शुरू हुआ यह वृद्धाश्रम, तब केवल कुछ ही लोगों के लिए खोला गया था। परंतु जैसे-जैसे समाज की संवेदनाएं कमजोर होती गईं, वैसे-वैसे यहां रहने वालों की संख्या बढ़ती चली गई। आज यह संख्या 30 के आसपास पहुंच गई है। इनमें से कुछ बुज़ुर्ग ऐसे हैं जिन्हें पुलिस द्वारा सडक़ पर बेसहारा हालत में पाया गया था और उन्हें यहां भेजा गया। लेकिन सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि अधिकतर लोग अपनों की उपेक्षा, प्रताडऩा और तिरस्कार के कारण यहां रहने को मजबूर हुए हैं। कुछ लोग स्वयं अपने लिए यह रास्ता चुनकर आए, क्योंकि शायद घर की दीवारों से ज्यादा सुकून यहां की छत में है। वहीं कुछ को उनके ही परिवार वालों ने झंझट समझकर यहां पहुंचा दिया, मानो उनके लिए बला हों।
आंखें बताती हैं कि कितना है दर्द
प्रशांति वृद्धाश्रम का संचालन नवदृष्टि कर रहा है। आश्रम की दिनचर्या की जि़म्मेदारी एकमात्र केयरटेकर पर है, जो इन बुज़ुर्गों की सेवा में जुटा है। हर महीने कई सामाजिक संस्थाएं, स्कूल-कॉलेज के छात्र, और स्वयंसेवी संगठन यहां आते हैं। ये लोग न केवल उन्हें वस्त्र, भोजन और अन्य ज़रूरतें मुहैया कराते हैं, बल्कि उनसे बात करके उनके दिल का बोझ भी हल्का करने की कोशिश करते हैं।
आर्थिक संपन्नता के बीच संवेदनहीनता
मीडिया से अक्सर इन लोगों का सामना होता है तो जो बातें उभरकर सामने आती हैं उनमें दर्द तो होता ही है पर सच का अंश बहुत ज्यादा। आश्चर्य की बात यह है कि यहां रहने वाले कई बुज़ुर्ग किसी आर्थिक तंगी के कारण नहीं, बल्कि भावनात्मक तिरस्कार और रिश्तों की बेगानगी के कारण यहां तक पहुंचे हैं। इनमें से कई ऐसे हैं जिनके परिवार संपन्न हैं, सामाजिक रुतबा रखते हैं, लेकिन शायद रिश्तों की गर्माहट को सहेजने का धैर्य खो चुके हैं। यह विडंबना ही है कि तकनीकी और आर्थिक विकास के बीच संवेदनशीलता और जिम्मेदारी की भावना खोती जा रही है।