नई दिल्ली। खुद को दुनिया के सबसे बड़े पीसमेकर कहने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कई बार रूस-यूक्रेन युद्ध रोकने की कोशिश कर चुके हैं। ट्रंप ने यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लादिमीर जेलेंस्की से मुलाकात की और पुतिन से मिलने की इच्छा जाहिर की, लेकिन नतीजा बेअसर रहा।
ट्रंप की बात मानने को न तो रूस तैयार है और न ही यूक्रेन।दूसरी तरफ रूस चुपचाप अपनी एशियाई रणनीति को नए सिरे से तैयार करने में जुटा है। रूस लगातार भारत के साथ हथियारों के सौदे और कूटनीतिक संपर्क बढ़ाता जा रहा है। हालांकि, यह बात अमेरिका को रास नहीं आ रही। इसी बीच पश्चिम देशों को चुनौती देने के लिए रूस ने फिर से रूस-भारत-चीन त्रिपक्षीय संवाद को शुरू करने की पहल की है। 29 मई को रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने एक सुरक्षा सम्मेलन में कहा था कि अब समय आ गया है कि इस मंच को फिर से पुनर्जीवित किया जाए।आइए पहले समझ लें कि यह आरआईसी त्रिपक्षीय संवाद क्या है। दरअसल, साल 1990 के दशक के अंत में रूस के पूर्व प्रधानमंत्री येवगेनी प्रीमाकोव ने यूरेशिया क्षेत्र में रणनीतिक सहयोग बढ़ाने के लिए तीनों देशों के बीच रिश्तों में मजबूत करने कोशिश की थी।इस मंच के तहत अब तक 20 से अधिक मंत्रिस्तरीय बैठक हो चुकी हैं। हालांकि, साल 2020 में गलवान घाटी में हुए भारत-चीन संघर्ष के बाद की कोई बैठक आयोजित नहीं की गई।ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद भारत और अमेरिका के बीच रिश्तों में काफी गरमाहट देखी जा सकती है। यह बात न तो रूस और चीन, दोनों को पसंद नहीं आ रही।रूस का मानना है कि जैसे ग्रुप चीन को उकसा रहे हैं। वहीं, हृ्रञ्जह्र, भारत को चीन विरोधी षड्यंत्रओं में शामिल करने की कोशिश में जुटा है। वहीं, क्रढ्ढष्ट एक स्वतंत्र और संतुलित मंच है, जो पश्चिम देशों का मुकाबला कर सकती है।भले ही भारत लगातार रूस से सैन्य सामग्री खरीद रहा है। वहीं, रूस के सैन्य उपकरणों पर भारत को पूरा भरोसा भी है, लेकिन देश, अमेरिका और इजरायल जैसे देशों के साथ भी रक्षा उपकरणों को खरीदने पर जोर दे रहा है।भारत ने हमेशा रणनीतिक स्वायत्तता बरकरार रखी है। भारत न तो कभी अमेरिका पर निर्भर रहा है और न ही रूस या चीन पर। वहीं, भारत ने हमेशा चीन को एक प्रतिद्वंद्वी देश के रूप में देखता है। रूस की कोशिश है कि भारत और चीन के बीच दोस्ती स्थापित हो जाए लेकिन ड्रैगन की हरकतें भारत को परेशान कर रही है।कुछ दिनों पहले हुए सैन्य संघर्ष के दौरान चीन ने खुलकर पाकिस्तान का साथ दिया था। वहीं, चीन की विस्तारवादी नीति से भारत भली भांति परिचित है। भारत कभी भी चीन पर आंख मूंदकर दोस्ती का हाथ नहीं बढ़ा सकता। चीन और रूस की राजनीतिक इच्छाशक्ति पर ही क्रढ्ढष्ट की सफलता निर्भर करेगी।