कटघोरा। जिले के विभिन्न् पहाड़ों में देवी प्रतिमाओं की पूजा होती है वहीं मातिन एक मात्र ऐसा पहाड़ है, जहां उपर में स्थित मंदिर में देवी के आसन की पूजा होती है। छत्तीसढ़ में से एक गढ़ के रूप में मान्य इस क्षेत्र में आज भी आदिवासी परंपरा से पूजा का विधान है। पर्वत वासिनी देवी मंदिर में दूर-दूर से भक्तजन मनोकामना ज्योति की दर्शन करने पहुंच रहे हैं। जिला मुख्यालय से 62 किलोमीटर दूर मातिन दाई का पहाड़ गोंडवंशियों की देवी मां के प्रति आस्था का व्यक्त करता है। पुरातत्व विभाग के मार्ग दर्शक हरिसंह क्षत्री के अनुसार क्षेत्र में 12 वीं से 16 वीं शताब्दी तक गोंडवंशीय राजाओं का शासन था। पहाड़ के उपर प्रतिवर्ष चैत्र व क्वांर नवरात्र में मनोकामना ज्योति कलश प्रज्वलित की जाती है। मंदिर के बैगा का कहना प्राचीन काल में पहाड़ों को सरंक्षित रखने के देवी अनुष्ठान की परंपरा हैै। सरल और सीधे आदिवासी श्रम और श्रद्धा पर विश्वास रखते हैं। पहाड़ को देवी स्थल के रूप में विकसित किए जाने का दूसरा उद्देश्य वनक्षेत्र में शिकार को रोकना भी था। मातिन कभी समृद्ध जंगल था। मातिन दाई की कृपा से आज भी यह वन क्षेत्र साल, गोंजा, कोसम, तेंदू आदि के वृक्षों से समृद्ध है। वर्तमान समय में भी वनांचल के रहवासी वनोपज संग्रह पर आश्रित हैं। नवरात्र के दोनों ही पर्वों में क्षेत्र के लोगों पूजा अनुष्ठान अपार श्रद्धा होती है। बदले परिवेश के साथ मंदिर में दर्शन के लिए वाले श्रद्धालु भोग भंडारे का आयोजन कराते है। मातिन दाई मंदिर में देवी आस्था को चैतुरगढ़ की अष्ठभुजी और और कोसगाई के समकालीन माना जाता है। यह पर्वत श्रृंखला मानगुरू और कोसगाई क बीचो बीच पड़ता हैं। सांस्कृतिक समरूपता होने से आदिवासियों में एकता बरकरार थी। इतिहासकारों का कहना है कि पर्वतों में देवी आराधना तात्कालिक आदिवासी राजाओं की देन है। यही वजह है कि इन मंदिरों आदिवासी समाज की आस्था आज भी बरकरार है।