कोलकाता। आरजी कर अस्पताल में महिला डॉक्टर से दरिंदगी की घटना को लेकर देश-दुनिया ने आंदोलन का नया स्वरूप देखा। समाज के हरेक वर्ग ने आवाज बुलंद की। जुलूस निकले, जन सभाएं हुईं, रिक्लेम द नाइट (रातभर विरोध-प्रदर्शन), राज्य सरकार के स्वास्थ्य विभाग के कार्यालय व कोलकाता पुलिस मुख्यालय के सामने धरना-प्रदर्शन से लेकर जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल व आमरण अनशन तक हुआ। बंगाल के सबसे बड़े उत्सव दुर्गापूजा के आगमन व उसके बाद जूनियर डॉक्टरों का आमरण अनशन व हड़ताल खत्म होने के बाद आंदोलन धीमा पड़ गया और अब यह धीरे-धीरे ‘मास कनेक्शन’ खोता जा रहा है। यही वजह है कि वारदात की जांच के 90 दिनों बाद भी सीबीआई की ओर से चार्जशीट दाखिल नहीं कर पाने, मामले के दो मुख्य आरोपितों को जमानत मिलने व सेंट्रल फोरेंसिक साइंस लैबोरेटरी (सीएफएसएल) की रिपोर्ट में अस्पताल के सेमिनार हाल को ‘क्राइम सीन’ नहीं बताए जाने पर भी अब तक वैसी जन प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली है, जैसी आंदोलन के शुरू में दिखी थी। आंदोलनकारी डॉक्टर इसे भली-भांति समझ रहे हैं और आंदोलन को उसके ‘मूल’ स्वरूप में लाने की कोशिश कर रहे हैं। इस बारे में मनोविज्ञानी अभिषेक हंस ने कहा-‘इसके कई कारण हैं। पहला, एक निश्चित समयावधि के बाद लोग मुद्दा विशेष भूलकर आगे बढ़ जाते हैं। सामान्य मानव प्रवृत्ति है। दूसरा, आज के दौर में अधिकांश लोग अपने जीवन की चुनौतियों को लेकर इतने व्यस्त व संघर्षरत हैं कि बाकी के लिए उनके पास न तो समय है और न ही ऊर्जा। जहां तक आरजी कर कांड की बात है तो मन से हर कोई चाहता है कि मामले में न्याय हो लेकिन उनकी सहभागिता नहीं दिख रही। जब आंदोलन शुरू हुआ था तो सबका इसपर फोकस था, लड़ाई का एक जज्बा था, लेकिन जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल खत्म होने से आंदोलन की चेन टूट गई और आम लोगों का एक बड़ा वर्ग इससे विमुख हो गया।