
एक कहानी
वैशाख का महीना था। गर्मी अपने चरम पर, फिर भी एक अजीब सी ठंडक मन में उतर रही थी। प्रतिमा सरकार को नहीं पता था कि इस दिन उसकी ज़िंदगी का एक ऐसा पन्ना खुलेगा, जिसे वह कभी बंद कर चुकी थी—अचानक, बिना अलविदा कहे।
तेईस साल पहले, कोरबा के एक सरकारी स्कूल में प्रतिमा और निभा की दोस्ती ऐसी थी, जैसे दो आत्माएं एक धागे से जुड़ी हों। एक साथ पढ़ाई, एक साथ दोपहर का टिफिऩ, और एक साथ भविष्य के सपने बुनना। पर फिर समय ने अपने पंख फैलाए और दोनों की ज़िंदगी अलग-अलग दिशाओं में उड़ चली।
शादी के बाद, प्रतिमा का जीवन अपने परिवार में व्यस्त हो गया। उसे कभी यह जानने की जरूरत महसूस नहीं हुई कि निभा कहां है, क्योंकि वक़्त ने उसके दिल की वो गहराइयाँ ढँक दी थीं। गूगल ने भी कभी उसका नाम नहीं बताया—जैसे वक्त खुद ये चाहता था कि मिलन एक चमत्कार की तरह घटित हो।
बांग्ला नववर्ष के कुछ दिन बाद, कोरबा के एक विवाह समारोह में प्रतिमा भाग ले रही थी। अचानक उसकी निगाहें एक परिचित मुस्कान पर जा ठहरीं—वह निभा थी। वही आंखें, वही भाव, बस चेहरे पर कुछ और अनुभवों की लकीरें थीं।
तू… निभा?
प्रतिमा…!
इतना कहकर दोनों लिपट गईं। भीड़, शोर, संगीत सब ठहर गया। केवल आंखों से बहते आंसुओं में बीते हुए साल बहने लगे। इतनी नज़दीकी में रहते हुए भी एक-दूसरे से अनजान कैसे रहीं, यह सोचकर दोनों को हंसी और आंसू एक साथ आ गए।
उस दिन वैशाख कृष्ण पक्ष की सप्तमी थी। न किसी ने इसे कभी विशेष माना था, न प्रतिमा ने। लेकिन अब यह दिन उनके लिए एक त्योहार बन गया। निभा ने कहा, शायद ये हमारी आत्माओं का संयोग है… जो इस दिन को ब्रह्मांड ने चुना।
प्रतिमा मुस्कराई, कलयुग में ऐसे मिलन चमत्कार ही तो हैं।